मेजर आनंद ने वापस कैंप में फोन किया. मगर वहां से भी नाउम्मीदी ही हाथ लगी. कार्यकर्ता अहमद ने बताया कि यहां जोर की बारिश और आंधीतूफान है...पहाड़ी नाला सड़क पर बहने लगा है, इसलिए कोई उन की मदद को नहीं आ सकता.
‘‘अब क्या होगा?’’ उस ने घबरा कर मेजर की तरफ देखा.
‘‘सिवा इंतजार के कोई रास्ता नहीं. आप तो काफी भीग गई हैं...पीछे बैग में कुछ ड्रैसेज रखी हैं, उन में से ही कुछ पहन लो. यों भीगे कपड़ों में रात भर रहीं तो बीमारी पड़ जाओगी,’’ कह मेजर गाड़ी से बाहर निकल गए.
उस ने देखा बैग में ट्रेड फेयर में बिकने वाले कपड़े रखे थे. कपड़े पारंपरिक थे. छींट का लहंगाचोली थी. उसे संकोच हुआ, मगर भीगे कपड़ों से छुटकारा पाने का यही तरीका था. उस ने गाड़ी की लाइट औफ की और कपड़े बदल लिए. बालों को भी खोल कर कपड़े से पोंछ लिया. अब काफी सुकून महसूस कर रही थी.
मेजर गाड़ी में आ कर बैठ गए. उन्होंने एक गहरी नजर से उसे देखा और फिर हलके से मुसकरा दिए. जाने क्या था उन नजरों में कि वह अपनेआप में सिमट गई. मेजर ने सीट ऐडजस्ट कर दी. वह पीछे की सीट में खुद को समेट कर लेट गई. रात यों ही गुजरने लगी. बारिश रुकरुक कर हो रही थी.
सुबह के 6 बजने वाले होंगे कि मैकैनिक बाइक में अपने साथी कारीगर के साथ वहां पहुंच गया. उसे रात में कब नींद लगी और मेजर कब से मदद के लिए फोन मिला रहे थे, उसे पता ही नहीं चला. मेजर ने उसे धीरे से हिलाया तो वह अचकचा कर उठ बैठी.