पिछला भाग- फैसला दर फैसला: भाग 2
‘‘मैं समझाती, तो कु्रद्ध हो उठता, प्यार का प्रदर्शन करती तो उस का पुरुषार्थ जाग्रत हो उठता और दया दिखाती तो नन्हे बालक के समान आत्महीनता का केंचुल ओढ़ कर नन्हे बालक के समान सुबकने लगता. यही समझौता कर लिया था मैं ने कि प्रसन्न अब कुछ नहीं करेगा.
‘‘धीरेधीरे मेरा कार्यक्षेत्र बढ़ने लगा. समय, सितारों और संघर्ष ने हाथ मिलाया और काफी धन अर्जित किया मैं ने. पक्षी भी घर लौटते होंगे तो वे 2 पल सुस्ता लेते होंगे, लेकिन प्रसन्न के परिवारजन मुझ पर यों टूटते थे जैसे कबूतरों के झुंड दाना डालने पर टूटते हैं. पैसा देते समय बुरा नहीं लगता था.
‘‘हां, प्रसन्न को देख कर मन जरूर क्षुब्ध हो उठता था. एक प्रतिभाशाली, कर्मठ व्यक्ति की तरह धन अपनी प्रतिभा को अपनी जड़मति से समाप्त कर रहा था. जब तक हम दोनों पतिपत्नी एकजुट हो कर धन अर्जित नहीं करते, उन उत्तरदायित्वों का निर्वहन कैसे करते, जिन्हें हम ने विरासत में पाया था? प्रसन्न की 2 बहनों का ब्याह रचाना था, देवर की शिक्षा का दायित्व था मुझ पर, लेकिन उसे किसी बात से सरोकार नहीं था.
‘‘अब एक नई धुन सवार थी उस पर... अपनी भवन निर्माण कंपनी खुलवाना चाहता था वह. दिनरात मुझ से पैसे मांगता. उधर मां को बेटियों की चिंता थी. अपने सीमित साधनों से एक ही समय में सारे दायित्व निभाना कठिन था मेरे लिए. हर समय घर में क्लेश रहता. जवान ननदों का विवाह करना मेरी पहली प्राथमिकता थी.
अपनी सारी जमापूंजी एकत्रित कर के ननदों का ब्याह किया तो मां बहुत खुश हो गई थीं. झोली भर कर आशीर्वाद मिले मुझे. प्रशंसा मिली, मान मिला, लेकिन यह प्रशंसा ही मेरे दांपत्य पर ग्रहण के रूप में छा गई. प्रसन्न मेरी प्रशंसा से ईर्ष्यालु हो उठा. अब तक जिन्हें प्रसन्न करने के लिए अपनी पत्नी को अपमानित करता आया, वह ही क्योंकर प्रशंसा की पात्र बन गई? उस का अहं दर्प के समान उजागर हो उठा. हर समय मुझ पर फिकरे कसता, शक करता.