व्यंग्य- रमेश चंद्र शर्मा
मानस कथा के आयोजन पर आयोजकों ने उभरते हुए संत भवानंद को आमंत्रित करने की सोची. लेकिन कथा प्रारंभ होने से पहले आयोजकों और भवानंद के बीच धर्म के नाम पर जन कल्याण के लिए चढ़ावे की रकम तय हो गई थी. होती भी क्यों न, धर्म के नाम पर चांदी काटने वालों की कमी थोड़े ही है.
कलयुग केवल नाम अधारा, यानी कलयुग में केवल ईश्वर का नाम भर लेने से व्यक्ति भवसागर पार कर जाता है. कितना शार्टकट. मगर कलयुगी इनसान मोहमाया के चक्कर में इस तरह उलझा है कि उसे ईश्वर का नाम लेने की भी फुर्सत नहीं है. लिहाजा, कुछ भले इनसानों ने तय किया कि भई, नाम ले नहीं सकता, तो सुन ही ले.
इसी भले काम के लिए इन लोगों ने जनकल्याण सत्संग समिति बनाई है. समिति हर साल मानसकथा का आयोजन करती है. आयोजन यों ही नहीं हो जाता है, समिति के सारे पदाधिकारी, सदस्यगण रातदिन पसीना बहाते हैं. कामधंधा खोटी करते हैं, तब जा कर आयोजन हो पाता है. भले काम के लिए भागदौड़ तो करनी ही पड़ती है. परोपकार के लिए लोगों ने अपने प्राण तक गंवा दिए हैं. धर्मशास्त्र इस का गवाह है.
बहरहाल, इस साल भी मानसकथा का आयोजन करना है और इस के लिए अध्यक्ष ने समिति की मीटिंग बुलाई है. मीटिंग में गंभीर विचारविमर्श चल रहा है.
‘‘इस वर्ष भी मानसजी की कथा करनी है,’’ समिति के अध्यक्ष संजयजी ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘कार्यक्रम पिछले सालों के अनुसार ही रहेंगे, पहले दिन कलश यात्रा और अंतिम दिन शोभा यात्रा. मगर एक बात है...’’