गली में पहरा देते चौकीदार के डंडे की खटखट और सन्नाटे को चीरती हुई राघव के खर्राटों की आवाज के बीच कब रात का तीसरा प्रहर भी सरक गया, पता ही न चला. पलपल उधेड़बुन में डूबा दिमाग और आने वाले कल होने वाली संभावनाओं से आशंकित मन पर काबू रखना मेरे लिए संभव नहीं हो पा रहा था. मैं लाख कोशिश करती, फिर भी 2 दिनों पहले वाला प्रसंग आंखों के सामने उभर ही आता था. उन तल्ख तेजाबी बहसों और तर्ककुतर्क के पैने, कंटीले झाड़ की चुभन से खुद को मुक्त करने का प्रयास करती तो एक ही प्रश्न मेरे सामने अपना विकराल रूप धारण कर के खड़ा हो जाता, ‘क्या खूनी रिश्तों के तारतार होने का सिलसिला उम्र के किसी भी पड़ाव पर शुरू हो सकता है?’
कभी न बोलने वाली वसुधा भाभी, तभी तो गेहुंएं सांप की तरह फुंफकारती हुई बोली थीं, ‘सुमि, अब और बरदाश्त नहीं कर सकती. इस बार आई हो तो मां, बाऊजी को समझा कर जाओ. उन्हें रहना है तो ठीक से रहें, वरना कोई और ठिकाना ढूंढ़ लें.’
‘कोई और ठिकाना? बाऊजी के पास तो न प्लौट है न ही कोई फ्लैट. बैंक में भी मुट्ठीभर रकम होगी. बस, इतनी जिस से 1-2 महीने पैंशन न मिलने पर भी गुजरबसर हो सके. कहां जाएंगे बेचारे?’ भाभी के शब्द सुन कर कुछ क्षणों के लिए जैसे रक्तप्रवाह थम सा गया था. जिस बहू का आंचल कितनी ही व्यस्तताओं के बावजूद कभी सिर से सरका न हो, जिस ने ससुर से तो क्या, घर के किसी भी सदस्य से खुल कर बात न की हो, वह यों अचानक अपनी ननद से मुंहजोरी करने का दुसाहस भी कर सकती है?