पहला भाग पढ़ने के लिए- शायद भाग-1
प्रद्युमन के घर निर्वाण को सारी सुविधाएं थीं. पढ़ाई के साथसाथ वह आसानी से गिटार के रियाज का समय भी निकाल लेता था. गिटार उस का पैशन था. जब वह एक के बाद एक गानों की धुन पर उंगलियां थिरकाता तो नीचे कोचिंग में बैठी प्रेक्षा अपनी सुधबुध खो देती. महीन सपने सतरंगी रथ पर बैठ इंद्रधनुष के पार चले जाते. अनुभूतियां सिहर कर सिर से पांव तक दौड़ जातीं और जब वह चौंक कर देखती तो गणित के सवाल पर उस की कलम मुंह के बल चारों खाने चित्त पड़ी मिलती.प्रद्युमन की सभी बच्चों पर बराबर नजर थी, लेकिन प्रेक्षा पर उन का ध्यान आजकल ज्यादा ही रहता. परीक्षाएं शुरू होने वाली थीं पर इस लड़की का हाल कुछ सही नहीं था. सारा सिखाया हुआ भूलती जा रही थी, स्कूल की कौपी में बारबार खराब प्रदर्शन था. डांटने और चिंता व्यक्त करते रहने से जब प्रेक्षा पर कोई असर नहीं हुआ तो प्रद्युमन ने एक दिन अकेले में उसे रोक लिया. वे कुरसी पर बैठे थे. प्रेक्षा सिर झुकाए सामने खड़ी थी. उन में बातचीत कुछ यों हुई-
‘‘और कितना समझाऊं तुम्हें? क्यों न अब तुम्हारे पापा को खबर करूं? पर वे इतना रुपया खर्च कर रहये हैं... कुछ तो उम्मीद होगी तुम से... मैं यह नहीं कहता कि सौ प्र्रतिशत लाओ, लेकिन कुछ तो रिटर्न दोगी उन्हें.’’
‘‘पापा से न कहना प्लीज.’’
‘‘क्यों? उन्हें पता चलना चाहिए?’’
‘‘पापा को इस कोचिंग के बारे में पता नहीं है.’’
‘‘क्यों क्व10 हजार तुम्हारी मां ने तो दिए नहीं होंगे... नौकरी तो वे करती नहीं.’’