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लेखिका- छाया अग्रवाल

मैं एक विराम लेने के लिए उठी. कमर को सीधा किया और कागजों पर कलम को रख दिया. वाशरुम से वापस लौटी तो देखा टेबल खाली थी. भाव, व्यथाओं को संभालने में निपुण कलम नीचे जमीन पर बेसुध पड़ा था और सारे कागज नदारद थे. मेरा दिल धड़क उठा. अपने कमरे की बालकनी से नीचे झांका. दूरदूर तक सन्नाटा पसरा था. कहां गए मेरे सब कागज, अभी तो छोड़ा था सही सलामत, फिर? दरवाजे की चटखनी को जांचा, वह बंद था. कोई आया, न गया और इस वक्त... टेबल के नीचे फिर से झांका, बालकनी में भी देखा, पर एक भी कागज़ का नामोनिशान न था. क्या करूं? कहां ढूंढूं? उस एक पल में मैं ने एक सदी के दुख झेल लिए. यह दुख झेलने के बाद जैसे टूटता है व्यक्ति, ठीक  वैसे ही टूटने लगी. मैं ठगी गई थी मगर ठग का न पता न ठिकाना. मैं थोड़ी सी देर में थक चुकी थी. अकसर ऐसे मौकों पर सहने की क्षमता कम हो जाती है. फिर गलती तो मेरी ही थी, कौन भला यों कागजों में लिखा करता है? क्यों नहीं किसी फाइल में कायदे से रखा गया?

अब आंखों में पानी भी आ गया था एकदम गरम, जिस ने गालों से ले कर गरदन तक का हिस्सा जला दिया. निढाल सी बिस्तर पर बैठ गई. बिखर जाती इस से पहले ही मेरे कमरे के दरवाजे को किसी ने खटकाया. गले में पड़े स्टौल से आंसुओं को पोंछ कर दरवाजा खोला, यों जैसे कोई मेरे ही कागजों को ले कर आ गया होगा और कहेगा- ‘ये लीजिए हवा से उड़ कर मेरे पास आ गए थे, संभालिए अपनी अमानत.’

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