लेखिका- छाया अग्रवाल
मैं, बस, अनायास ही उस की बात से मुसकरा उठी थी. उस का इस तरह मुझे खुद से जोड़ लेना मेरे लिए अदभुत था. फिर भी मैं बहुत ज्यादा गंभीर नहीं थी. मैं उस के बारे में पूरा जानना चाह रही थी. इस के लिए उस के साथ समय बिताना जरूरी था. मुझे भी कोई खास काम नहीं था. इसी मंशा से मैं ने सहमति दी और हम कहीं समय बिताने के लिए निकल पड़े.
दूसरी मुलाकात में एकदूसरे से इतना सहज हो जाना और साथ समय बिताने का आग्रह स्वीकार कर लेना बेशक अविश्वसनीय था, मगर चाशनी में डूबा हुआ था जो मुझे अच्छा लग रहा था और शायद उसे भी.
हम होटल से निकल पड़े और साथसाथ चल रहे थे, बातों का सिलसिला जारी था. इस बीच कई बार उस ने मेरे विचारों को बगैर समझे ही समर्थन दिया था. शायद यह उस की जल्दीबाजी थी या मुझ पर भरोसा जताने का तरीका, यह तो मैं नहीं समझ पाई मगर इतना जरूर समझ गई थी किह मुझ से प्रभावित है, इसलिए ऐसा कर रही है. और उस का ऐसा करना कहीं न कहीं मुझे उस से जोड़ रहा था.
चलतेचलते हम किसी रैस्टोरैंट जाने के बजाय एक छोटे से चाय के खोखे में बैठ गए जो पहाड़ी पंखडंडीनुमा रास्तों के बीच बांस की खपच्चियों से बनाया गया था. आम के तख्तों से बनी बैंच पर हम दोनों बैठ गए. बेतरतीब बनाई गई बैंच हमारे बैठते ही हिलने लगी, जिस से डरने के बजाय अनायास ही हमारी हंसी छूट पड़ी और मन बचपन की तरह शरारती हो उठा. फिर हम बिलकुल सधे हुए बैठे रहे.