सिंगापुर हवाईअड्डे से स्कूल की दूरी अच्छीखासी थी. एयरपोर्ट पर ही वसुधा को लेने आए ट्रैवल एजेंट ने स्कूल की तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए, ‘‘मैडम, ऐसा स्कूल आप को दुनिया में कहीं नहीं मिलेगा. बच्चे का पूरा ध्यान रखते हैं. और शायद यह दुनिया का पहला स्कूल है जो अस्पताल से जुड़ा हुआ है. बच्चे की सेहत का पूरा ध्यान रखा जाता है, पेरैंट्स को टैंशन लेने की जरूरत नहीं. आप देखिएगा कुछ ही सालों में न आप अपने बच्चे को पहचान पाएंगे और न ही आप का बच्चा आप को.’’ जवाब में वसुधा ने एक फीकी मुसकान फेंकी और मन ही मन कहा, ‘देख पाएगा, तो जरूर पहचान पाएगा.’
‘‘मम्मी, पानी,’’ नन्हे करण का हाथ आगे था. वसुधा ने थर्मस से पानी डाला और गिलास आगे बढ़ा दिया जिसे बच्चे ने एक सांस में ही खाली कर दिया, ‘‘मम्मी, हम कहां जा रहे हैं? यह कौन सी जगह है.’’
‘‘हम सिंगापुर पहुंचे हैं और तुम्हारे नए स्कूल में जा रहे हैं, जहां तुम्हें ढेर सारे खिलौने मिलेंगे, अच्छेअच्छे दोस्त मिलेंगे, खूब मस्ती होगी...’’
‘‘अच्छा,’’ करण कुछ सोच में था, ‘‘सिंगापुर - वही जहां नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने सैकंड वर्ल्ड वार में दिल्ली चलो का नारा दिया था.’’
‘‘हां, यह जगह वही है. अब तुम थोड़ी देर सुस्ता लो. फ्लाइट में भी नहीं सोए थे, तबीयत खराब हो जाएगी.’’
स्कूल के रिसैप्शन पर एक लड़की वसुधा का इंतजार कर रही थी, ‘‘मैं हूं रमया, मानव सर की असिस्टैंट. सर, आप का ही इंतजार कर रहे हैं.’’
‘‘फ्लाइट लेट हो गईर् थी,’’ वसुधा ने कहा लेकिन दिमाग उस का मानव नाम पर अटका हुआ था. कितना परिचित नाम है. पिं्रसिपल के कमरे में प्रवेश करते ही वसुधा की सांस अटक सी गई, विशाल कमरा, पीछे दीवार पर एक बड़ी तसवीर और आगे एक बड़ी सी मेज, सोफे और इन सब के बीच एक कुरसी पर मानव... वही चेहरा, वही ललाट, वही माथा और वही गहरी आंखें - वसुधा सकपका सी गई. ‘‘वैलकम मिस्टर करण,’’ पिं्रसिपल का ध्यान अपने छात्र पर ही था.