‘‘यह भी कोई जीना है, न खुल कर बोल सकते हैं, न हंस सकते हैं और न ही कहीं घूम सकते हैं,’’ रोजरोज की घुटन से तंग आ कर आखिर मोनिका फट ही पड़ी.
‘‘यही तो परिवार है, जहां सब के लिए जगह है, प्यार है. जिन्होंने हमें योग्य बनाया, उन के लिए भी तो हमारे कुछ दायित्व हैं,’’ अनुपम ने उसे समझना चाहा.
‘‘अब वह जमाना नहीं रहा अनु, आज हर परिवार इस बात को अच्छी तरह समझता है कि पतिपत्नी को अपने मनमुताबिक जीवन जीने का अधिकार है और तुम हो कि अपनेआप बड़प्पन का बोझ ओड़े पड़े हो... इस घुटनभरे घर में तो सारे सपने बिखर गए मेरे...’’ मोनिका की भृकुटियां तन गईं.
‘‘मुझे नहीं मालूम था कि तुम इस तरह के सपने पाले बैठी थीं.’’
‘‘मुझे भी नहीं पता था कि तुम्हारे साथ अपना जीवन बरबाद करने जा रही हूं.’’
प्रेम विवाह से आह्लादित मोनिका पति के प्यार में खुल कर जीना चाहती थी, लेकिन परिवार में ऐसी स्वतंत्रता के लिए जगह नहीं थी. कुछ दिनों तक उस ने दबी आवाज में अपना दुख व्यक्त किया, लेकिन जब अनुपम ने उस की बात को गंभीरता से नहीं लिया तो उस के सब्र का बांध टूटना ही था, सो टूट गया. उस दिन से दोनों के बीच संबंधों में शिथिलता आ गई. दोनों बात तो करते लेकिन उस में औपचारिकता ने घर बना लिया था.
दीपावली की छुट्टियां पड़ीं तो मोनिका अपने मायके जाने की जिद करने लगी. घर वाले चाहते थे, बहू उन के पास रहे. अनुपम ने भी समझया, लेकिन वह नहीं मानी. इस से आगे बढ़ कर उस ने अनुपम को भी मायके में दीपावली मनाने को कहा. अनुपम को यह व्यवहार कांटे जैसा लगा, लेकिन विवाद से बचने के लिए थोड़ी नानुकुर के बाद उस ने समर्पण कर दिया. अपने घर वालों को उस ने यह सांत्वना दे कर मनाया कि एक दिन बाद आ जाएगा. अम्मांबाबूजी और छोटे भाईबहनों के चेहरों पर उपजी वेदना को महसूस कर के वह मर्माहत हो उठा था.