यह स्थिति अकेले अनुपम के साथ ही हो, ऐसा नहीं था. मोनिका को भी प्रेम के अभाव ने विचलित करना शुरू कर दिया.बस यंत्रचालित जीवन रह गया था. सुबह उठना, ब्रेकफास्ट तैयार करना, दोपहर का खाना बना कर रख देना, अपनीअपनी सुविधा के अनुसार ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर अलगअलग करना, डिनर के बाद बैड पर अपनेअपने हिस्से में दुबक जाना. रोजाना का यही क्रम बन गया था, सबकुछ, भावविहीन क्रियाओं के साथ.
संवादहीनता से उपजी त्रासदी के बीच मोनिका का मन प्रेमभाव की संतुष्टि के लिए रातदिन छटपटा रहा था, उद्वेलित हो रहा था. कितना भी कृत्रिम बनो, मगर नैसर्गिक जरूरतों को मारना बहुत दुष्कर होता है. मोनिका के अंदर भी रहरह कर एक चाह उमड़ रही थी कि कोई ऐसा अपना हो जिस के कंधे पर सिर रख कर प्रेमसुख पा सके, अपनी भावनाओं को शेयर कर के जीवन में आई रिक्तता को भर सके. इस से वशीभूत उस का मन एक हमसफर को तलाशने लगा और सामने आ गया उस का अपना पीएचडी स्टूडैंट, उस से 2 वर्ष छोटा गौरव, जिस की ओर बढ़ते कदमों को वह रोक नहीं पा रही थी.
शनिवार को अवकाश था. घर के घुटनभरे परिवेश से मुक्त होने के लिए मोनिका नैनी ?ाल के किनारे ठंडी सड़क पर आ गई थी, गौरव से मिलने, पीएचडी पर डिस्कशन के बहाने. ?ाल के पास से गुजरती ठंडी सड़क किसी अकेले व्यक्ति, युवा प्रेमी जोड़ों एवं नवविवाहित पतिपत्नी के घूमने के लिए एकदम माफूल है. दुख के क्षणों में भी इस की धुंध में लिपटी नीरवता बहुत सुकून देती है. मोनिका के लिए भी यह सड़क कुछ ज्यादा ही जानीपहचानी हो गई थी. सड़क के किनारे गुलमोहर के पेड़ों के नीचे बेंत की लकड़ी से बनी बैंच पर बैठ कर उस ने दूर तक नजर डाली तो अनुपम के साथ बिताए कई पलों की यादें ताजा हो गईं...