मेरे होंठों पर तो केवल एक हलकी सी मुसकान आई, पर पत्नी के चेहरे पर तब आश्चर्य था जब हमारे मित्र ने उसे बताया कि इस समय अर्थात रात के लगभग 1 बजे आने वाला आगंतुक एक महिला होगी. पर जब वह आई तो उस में ऐसा कुछ असाधारण नहीं दिखा. एक साधारण नारी की तरह उस के पास भी 2 ही भुजाएं थीं. उन 2 भुजाओं में भी उस ने कोई अस्त्रशस्त्र नहीं थाम रखा था. उस के हाथ तो टिके हुए थे अपनी नीली छत वाली उस वातानुकूलित टैक्सी के स्टेयरिंग पर.
उन हाथों की पकड़ को मैं ने ध्यान से देख कर उन में घबराहट या आत्मविश्वास की कमी का कोई लक्षण तलाशने की कोशिश तो की पर नाकामयाब रहा. उस की बातों से ही नहीं, उस के हाथों से भी आत्मविश्वास झोलक रहा था. पर वह बड़बोली नहीं थी. आत्मविश्वास ने नम्रता को स्थानापन्न नहीं किया था. वह अपनी सवारी से बातें करते हुए एक साधारण घरेलू महिला जैसी ही लग रही थी. पर शायद यहां मैं गलती कर रहा हूं. कोई घरेलू महिला रात के 2 बजे मुंबई महानगर की किसी सड़क पर एक नितांत अपरिचित के साथ बातें करती हुई इतनी सहज नहीं लग सकती थी जितनी मुंबई की वह महिला टैक्सीचालक लग रही थी.
टैक्सीचालिका कहना उस के नारीत्व का असम्मान होगा, इसलिए टैक्सीचालक कह कर ही उस की बात कर रहा हूं. उस की बातचीत में नारीसुलभ मिठास थी. किसी भी प्रकार का दंभ उस की बातों में नहीं था कि वह कोई असाधारण काम करती है. टैक्सी ड्राइव करने में उस का कौशल किसी पुरुष से कम नहीं था. अत: चालक और चालिका शब्दों का भेदभाव इस प्रसंग में बेमानी होगा और आत्मसम्मान के साथ जीविकोपार्जन करने के उस के चुने काम के प्रति बेईमानी भी. तो मैं उसे टैक्सी चालक ही कहूंगा.