संडे की छुट्टी को हम पूरी तरह ऐंजौय करने के मूड में थे कि सुबहसुबह श्रीमतीजी ने हमें डपटते हुए कहा, ‘‘अजी सुनते हो, लहसुन बादाम से महंगा हो गया और प्याज सौ रुपए किलोग्राम तक जा पहुंचा है.’’

इतनी सुबह हम श्रीमतीजी के ऐसे आर्थिक, व्यावसायिक और सूचनापरक प्रवचनों का भावार्थ समझ नहीं पा रहे थे. तभी अखबार एक तरफ पटकते हुए वे पुन: बोलीं, ‘‘लगता है अब हमें ही कुछ करना पड़ेगा. सरकार की कुंभकर्णी नींद तो टूटने से रही.’’

हम ने तनिक आश्चर्य से पूछा, ‘‘भागवान, चुनाव भी नजदीक नहीं हैं. इसलिए

फिलहाल प्याजलहसुन से सरकार गिरनेगिराने के चांस नहीं दिख रहे हैं. सो व्यर्थ का विलाप बंद करो.’’

श्रीमतीजी तुनक कर बोलीं, ‘‘तुम्हें क्या पता है, आजकल हो क्या रहा है. आम आदमी की थाली से कभी दाल गायब हो रही है तो कभी सब्जियां. सरकार को तो कभी महंगाई नजर ही नहीं आती.’’

व्यर्थ की बहस से अब हम ऊबने लगे थे, क्योंकि हमें पता है कि आम आदमी के रोनेचिल्लाने से कभी महंगाई कम नहीं होती. हां, माननीय मंत्री महोदय जब चाहें तब अपनी बयानबाजी और भविष्यवाणियों से कीमतों में उछाल ला सकते हैं. चीनी, दूध की कीमतों को आसमान तक उछाल सकते हैं. राजनीति का यही तो फंडा है- खुद भी अमीर बनो और दूसरों के लिए भी अमीर बनने के मौके पैदा करो. लूटो और लूटने दो, स्विस बैंक का खाता लबालब कर डालो.

श्रीमतीजी घर के बिगड़ते बजट से पूरी तरह टूट चुकी हैं. रोजमर्रा की वस्तुओं के बढ़ते दामों ने जीना मुहाल कर रखा है. इसलिए वे एक कुशल अर्थशास्त्री की तरह गंभीर मुद्रा में हमें सुझाव देने लगीं, ‘‘क्यों न हम अपने लान की जमीन का सदुपयोग कर के प्याजलहसुन की खेती शुरू कर दें?’’

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