खुली खिड़की है भई मन, विचारों का आनाजाना लगा रहता है, कहती है जबां कुछ और तो करते हैं हम कुछ और कहते हैं बनाने वाले ने बड़ी लगन और श्रद्धा से हर व्यक्ति को गढ़ा, संवारा है. वह ऐसा मंझा हुआ कलाकार है कि उस ने किन्हीं 2 इंसानों को एक जैसा नहीं बनाया (बड़ी फुरसत है भई उस के पास). तन, मन, वचन, कर्म से हर कोई अपनेआप में निराला है, अनूठा है और मौलिक है. सतही तौर पर सबकुछ ठीकठीक है. पर जरा अंदर झांकें तो पता चलता है कि बात कुछ और है. गोलमाल है भई, सबकुछ गोलमाल है.

बचपन में मैं ने एक गाना सुना था. पूरे गाने का सार बस इतना ही है कि ‘नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छिपी रहे.’

कई तरह के लोगों से मिलतेमिलते, कई संदर्भों में मुझे यह गाना बारबार याद आ जाता है. आप ने अकसर छोटे बच्चों को मुखौटे पहने देखा होगा. फिल्मों में भी एक रिवाज सा था कि पार्टियों, गानों आदि में इन मुखौटों का प्रयोग होता था. दिखने में भले इन सब मुखौटों का आकार अलगअलग होता है पर ये सब अमूमन एक जैसे होते हैं. वही पदार्थ, वही बनावट, उपयोग का वही तरीका. सब से बड़ी बात है सब का मकसद एक-सामने वाले को मूर्ख बनाना या मूर्ख समझना, उदाहरण के लिए दर्शकों को पता होता है कि मुखौटे के पीछे रितिक हैं पर फिल्म निर्देशक यही दिखावा करते हैं कि कोई नहीं पहचान पाता कि वह कौन है.

इसी तरह आजकल हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी पद पर हो, किसी भी उम्र का हो, हर समय अपने चेहरे पर एक मुखौटा पहने रहता है. चौबीसों घंटे वही कृत्रिम चेहरा, कृत्रिम हावभाव, कृत्रिम भाषा, कृत्रिम मुसकराहट ओढ़े रहता है. धीरेधीरे वह अपनी पहचान तक भूल जाता है कि वास्तव में वह क्या है, वह क्या चाहता है.

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