नूपमुझे झंझड़ कर जगा रहे थे. मैं पसीनापसीना हो रही थी. आज फिर वही सपना आया था. मीलों दूर तक फैला पानी, बीचोंबीच एक भूतहा खंडहर और उस खंडित इमारत में पत्थर का एक बुत...
मैं हमेशा खुद को उस बुत के सामने खड़ा पाती हूं. मेरे देखते ही देखते वह बुत अपनी पत्थर की पलकें झपका कर एकदम आंखें खोल देता है. आंखों से चिनगारियां फूटने लगती हैं, फिर वे लपटें बन कर मेरी ओर आती हैं, एक अट्टहास के साथ... मैं पलटती हूं और वह हंसी एक सिसकी में बदल जाती है. मैं बाहर भागती हूं, पानी में हाथपैर मारती हूं, तैरने की कोशिश करती हूं, आंखनाककान सब में पानी भर जाता है. दम घुटने लगता है. मैं डूबने लगती हूं और फिर... अचानक नींद खुल जाती है.
‘‘क्या हुआ? कोई डरावना सपना देखा...’’ अनूप की आवाज कहीं दूर से आती प्रतीत हुई. मेरी आंखें अपने आप मुंदने लगीं.
‘‘मम्मा आज सोशल साइंस का ऐग्जाम है...’’ 6 बजे ऋचा मुझे जगा रही थी. वैसे तो
रोज स्कूल के लिए इसे जगाने में मुझे काफी मशक्कत करनी पड़ती है, पर परीक्षा के समय बिटिया कुछ ज्यादा समझदार हो जाती है. इस की यही समझदारी मुझे निश्चिंत करने के बजाय आशंकित कर देती है. बरसों से कहीं गहरे
दफन किया हुआ राज धीरेधीरे दिलदिमाग पर जमी मिट्टी खोद कर उस के खूंखार पंजे बाहर निकालने लगता है. मैं सिर झटक कर उठ बैठी. सब विचारों और सपने के भय को परे हटा किचन में घुस गई.
ऋचा स्कूल और अनूप औफिस जा चुके थे. बेटे ऋत्विक के रूम में जा कर देखा, महाशय जमीन पर सो रहे थे और बैड पर किताबें पसरी पड़ी थीं. उस के बेतरतीब रूम को देख कर मन फिर पुरानी गलियों में बेतरतीब भटकने लगा...