दिनभर की भागदौड़ और साफसफाई के चक्कर में सुरभि एकदम पस्त हो चुकी थी. दीवाली के दिन घर में जाने कहां से इतने सारे काम निकल आते हैं, जिन्हें स्वयं ही निबटाना पड़ता है. और काम हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेते. उस पर शाम के वक्त का तो कहना ही क्या. मिठाई, पकवान बनातेबनाते कब अंधेरा घिर गया, पता ही नहीं चला. सुरभि जल्दी से तैयार हो कर दीयों और मोमबत्तियों से घरबाहर सजाने लगी. बच्चों को कितना भी कहो कि वे इस काम में सहयोग करें, मगर उन्हें तो जैसे अपने खिलौनों और पटाखों से फुरसत न थी.
शोभा तो फिर भी थोड़ाबहुत सहयोग करती थी, मगर सूरज ने तो जैसे अपने खिलौने पिस्तौल को न छोड़ने का प्रण कर रखा था. सुरभि को उस की इस मानसिकता से डर भी लगता था कि अभी से गोलीबंदूक का शौक लग रहा है. आगे जाने क्या हो.
सूरज का अकेले खेलने में मन भी नहीं लग रहा था और शोभा को भी दीए सजाने में ऊब महसूस हो रही थी. अत: उसे मौका मिला नहीं कि वह सूरज के साथ फ्लैट के नीचे खिसक
गई. सुरभि ?ाल्लाने लगी, तो राजीव उस की तरफदारी करते हुए बोले, ‘‘खेलने दो उन्हें, अभी बच्चे हैं.’’
‘‘तो आप ही मेरी सहायता कीजिए न,’’ वह हंस कर बोली, ‘‘यह त्योहार सिर्फ मेरे लिए ही तो नहीं है.’’
‘‘यह सब मेरे बस का नहीं,’’ वह हंस कर बोले, ‘‘मेरा काम बस सारा सामान लाना था, वह ला दिया. अब तुम्हारे जो जी में आए करो,’’ कह कर वे पुन: वीडियोगेम खेलने में व्यस्त हो गए.