नौकरी के पीछे युवा फौज का बढ़ता आंकड़ा भारतीय मानसिकता की इस बात की पुनर्स्थापना करता है कि पढ़लिख कर ब्राह्मण समान बन जाना ही शिक्षा का उद्देश्य है और पढ़ेलिखे हैं, तो हाथ का काम कैसे कर सकते हैं. पढ़ेलिखे हैं तो नौकरी होनी चाहिए, चाहे कैसी भी हो, हाथ से करने का काम न हो. बेरोजगारी के भयावह आंकड़े बताते हैं कि अनपढ़ युवकों में शहरों में रहने वाले केवल 2.1 फीसदी बेरोजगार हैं जबकि पढ़ेलिखे 9.2 फीसदी बेरोजगार हैं. शहरी लड़कियों में 0.8 फीसदी अनपढ़ लड़कियां बेरोजगार हैं तो 20 फीसदी शिक्षित लड़कियां बेरोजगार हैं.
शिक्षा एक तरह से छूत की बीमारी बन गई है. सदियों से हमारे यहां परंपरा रही है कि पढ़नेलिखने का काम केवल ब्राह्मणों का है और वे अपनी रक्षा तक नहीं करते थे. तभी, ऋषि विश्वामित्र राक्षस मारीच के उत्पात के कारण राजा दशरथ के दरबार में पहुंचे और पूरी तरह वयस्क न हुए राम व लक्ष्मण को वे राक्षस को मारने के लिए ले गए. यह पौराणिक कथा है या इतिहास का अंश है, इसे साबित नहीं किया जा सकता, पर आज का शिक्षित इसी को अपनाने की कोशिश कर रहा है चाहे वह किसी भी जाति का हो.
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देश के युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी का मुख्य कारण यह है कि यहां फैक्टरी उत्पादन पूरी तरह अशिक्षित युवाओं के हाथों में है. दशकों से फैक्टरी में ऊंची जातियों के लोग यदि मजदूरी या मशीनों पर काम करने के लिए हामी भी भर देते थे तो जल्दी ही वे यूनियनबाजी पर उतर कर, काम छोड़ कर श्रमिकों को बहकानेफुसलाने का काम करना शुरू कर देते थे. अधिकतर श्रमिक यूनियनों के नेता इन्हीं वर्गों के हैं.