सुधीर ने कोई जवाब नहीं दिया. मुझे लगा मैं ने व्यर्थ का सवाल उठा दिया. जिस का चरित्र दोगला हो वह भला यह सब सोचविचार क्यों करेगा? खैर, यह समाचार मेरे मायके तक पहुंचा. भैया मेरी ससुराल आते ही गरजे, ‘‘कहां है सुधीर, मैं उसे बरबाद कर के छोड़ूंगा. सरकारी कर्मचारी हो कर भी उस की हिम्मत कैसे हुई दूसरी शादी करने की?’’
मैं ने भैया को किसी तरह शांत करने की कोशिश की.
‘‘मैं चुप रहने वाला नहीं. पुलिस में रिपोर्ट करूंगा. इस के अफसरों से शिकायत करूंगा. दरदर की ठोकर न खिलवाई तो मेरा नाम नहीं.’’
सुधीर चुपके से निकल कर बाहर चला गया. मेरी सास आईं, ‘‘भड़ास निकाल ली. अब मेरी भी सुनिए. सुनीता बिन बाप की बेटी थी. सुधीर ने सिर्फ सहारा दिया है,’’ वे बोलीं.
‘‘अपनी बेशर्मी को सहारे का नाम मत दीजिए. एक को सहारा दिया और दूसरे को बेसहारा किया,’’ भैया ने व्यंग्य किया.
‘‘आरती को क्या किसी ने घर से जाने के लिए कहा है?’’ सास बोलीं.
‘‘निकल ही जाएगी,’’ भैया बोले.
‘‘उस की मरजी. पर न मैं चाहूंगी न ही सुधीर कि वह इस घर से जाए. उस का जो दरजा है वह बना रहेगा.’’
‘‘मुझे बहलाने की कोशिश मत कीजिए,’’ भैया मेरी तरफ मुखातिब हुए, ‘‘आरती, तुम सामान बांधो. अब मैं तुम्हें यहां एक पल भी न रहने दूंगा.’’
‘‘नहीं भैया, मैं ससुराल छोड़ने वाली नहीं. आज भी हमारा समाज किसी ब्याहता को मायके में स्वीकार नहीं करता,’’ मैं कहतेकहते भावुक हो गई, ‘‘मैं ससुराल की चौखट पर ही दम तोड़ना पसंद करूंगी मगर मायके नहीं जाऊंगी.’’
भैया की भी आंखें भर आईं. रूढि़वादी समाज से क्या लड़ना आसान है? गोत्र के नाम पर पतिपत्नी को भाईबहन बता दिया जाता है. ऐसे जड़ समाज से परिवर्तन की उम्मीद करना रेगिस्तान में पानी तलाशने जैसा है.