कहानी- मधु शर्मा
जून माह की दोपहर मृणाल घर के बरामदे में बैठी हुई सामने लगे नीम के पेड़ पर पक्षियों को दानापानी रखने के लिए टंगे मिट्टी के बरतन को देख रही थी. उस पर बैठी गिलहरी, छोटीछोटी चिडि़याएं खूब कलरव कर रही थीं. वे कभी दाना चुगतीं तो कभी पानी के बरतन में जा कर उस में खेलतीं. मृणाल यह सब बहुत ध्यान से देख कर मुसकराए जा रही थी.
तभी भीतर से आवाज आई, ‘अंदर आ जाओ, बाहर जलोगी क्या. कितनी गरमी है वहां, लू लग जाएगी.’ और मृणाल धीरे से उठ कर अंदर चली गई. पहले उस ने सोचा बैडरूम में जाए फिर उस का मन हुआ क्यों न चाय बना ली जाए.
वह रसोई में जा कर चाय बनाने लगी. तभी प्रणय भी अंदर रसोई में आ गया और बोला, ‘‘चाय बना रही हो, पागल हो गई हो क्या? अभी तो 3 ही बजे हैं, कितनी गरमी है, तुम्हारा भी कुछ पता नहीं लगता. मैं सोचता हूं तुम्हारा इलाज साइको वाले से करवा ही लेता हूं.
‘‘पागल हो तुम, वैसे शुरू से ही थीं पर जब से दिल्ली से आई हो, बड़ी अजीबोगरीब हरकतें कर रही हो. मुझे तो अपना भविष्य अधर में लटका दिख रहा है. कैसे इस पागल के साथ पूरा जीवन काटूंगा,’’ बड़े लापरवाह लहजे में कहते हुए प्रणय फ्रिज में से आम निकाल कर काटने लगा.
मृणाल सब सुन रही थी और सिर्फ मुसकरा कर उस से बोली, ‘‘ज्यादा मत बोलो. बताओ, तुम्हारी भी चाय बनाऊं या नहीं?’’