‘‘तुम्हें मेरा काम करना ही होगा. जब तुम यह काम आसानी से कर सकती हो तो पति के लिए इतना भी नहीं कर सकती.’’
‘‘मैं ने कह दिया है वरदी का विश्वास रखना सिर्फ वेतन का ऋण चुकाना ही नहीं है, लाखों लोगों के भरोसे पर कायम रहना भी है.’’
‘‘तुम एक औरत हो, पहले घर देखो,
फिर नौकरी.’’
‘‘बस आ गए न तुम अपनी छोटी सी गोलाई के अंदर. अरे यह जिम्मेदारी देश, कानून और समाज के प्रति है. औरत हूं तो क्या न्याय की रक्षा मेरी जिम्मेदारी नहीं और तब जब इस वरदी को सिरआंखों पर लगाया है?’’
‘‘तुम अपनी बड़ीबड़ी बातें अपनी जेब में ही रखो. ऐसी सोच रखें तो सड़कों पर भीख मांगें. पावर है किसलिए? खुद ही फटेहाल हो जाएं? मैं कुछ नहीं जानता. तुम्हारा पहला धर्म है पत्नी का कर्तव्य निभाना. मगर तुम यह सब जानोगी कैसे. तुम्हारी तो परवरिश ही सही नहीं है. एक सावित्री थीं, जो सत्यवान को यम के द्वार से छुड़ा लाई थीं.’’
‘‘सावित्री सत्यवान जैसी कहानियां स्त्रियों का पूरा अस्तित्व ही पति पर आश्रित बनाती हैं. स्त्री खुद ही पूर्ण है और उस के होने के लिए किसी और की जरूरत नहीं. रही बात प्रेम की तो वह किसी बाध्यता की मुहताज नहीं. मैं इन कहानियों से सीख नहीं लेती, जो सही होगा, वही करूंगी’’
मैं तो इधर साक्षात यम को देख रही हूं, जो सरकार का वह प्रतिनिधि है. जिसे
देशवासियों की खाद्यसुरक्षा की जिम्मेदारी दी जाती है. वह मासूमों की जिंदगी दांव पर लगा कर अरबों कमाता है और लोगों की नजरों में धूल ?ोंक कर साफ बच निकलना भी चाहता है. घोटाले तो करें, लेकिन इज्जत पर आंच नहीं आए. लोग जाएं भाड़ में, खुद बच गए तो सब साफ. मैं वैसी पत्नी नहीं हूं जो पति धर्म के नाम पर सचाई और न्याय से खुद को हटा ले. इस के बाद कभी भी कानून के खिलाफ जाने की मु?ा से जिद न करना.’’