‘बहुओं की क्यों नहीं आएगी, आखिर बड़े चाव से उन्हें घर लाई हूं, उन के सभी अरमान पूरे कर के मैं ने अपने ही मन की साध पूरी की है, पहनओढ़ कर कितनी सुंदर लगती हैं, जब कभी शृंगार कर लेती हैं तो मेरा मन उन की नजर उतारने को करता है, उन्हें देख कर तो मेरी चाल में एक घमंड उभर आता है. पता है गौरव कभीकभी तो मैं रिश्तेदारों की बहुओं से उन की तुलना करने बैठ जाती हूं कि पासपड़ोस में, रिश्तेदारों में है कोई जो मेरी बहुओं से अधिक सुंदर हो.’’
तभी बेला बोल उठी, ‘‘और भाभी मैं?’’
‘‘अरी, तू किसी और की पसंद की है क्या? तुझे भी तो मैं ही ठोकबजा कर लाई थी, तू किसी से कम कैसे हो सकती है? बहुएं छांटने में मैं ने कोई समझौता नहीं किया, मैं दहेज के लोभ में कभी नहीं आई, बस गुण, शील, सौंदर्य के पीछे ही भागी.’’
तभी फोन की घंटी बजी, तो गौरव ने रिसीवर उठाया, ‘‘हैलो.’’
‘‘हैलो, चाचाजी, प्रणाम. सौमित्र बोल रहा हूं... वहां सब ठीक है?’’
‘‘हां बेटा सब ठीकठाक है और तुम लोग?’’
‘‘यहां सब कुशलमंगल हैं, जरा मां से बात करा दो.’’
‘‘हांहां,’’ कह कर मैं ने भाभी को रिसीवर थमा दिया, ‘‘भाभी, सौमित्र का फोन है.’’
‘‘हैलो मां, प्रणाम.’’
‘‘सुखी रह, इतने दिनों बाद मां की याद आई, नालायक. इतने दिनों तक फोन क्यों नहीं किया?’’
‘‘फोन किसलिए करता, आप कहीं गैर जगह थोड़े ही न गई हैं, अपने तीसरे बेटे के पास गई हैं, बड़े के पास आप हो तो क्या हालचाल पूछता? वैसे मैं उन से बातचीत करता रहता हूं. हां मां, फोन इसलिए किया है कि डा. योगेश की लड़की की शादी है. परसों ही वे कह रहे थे कि सौमित्र तुम्हारी माताजी को जरूर आना है. आप आ जाइए. कहें तो मैं लेने आ जाऊं? पूछ लीजिए चाचाजी से.’’