अगली प्रात: मैं भाभी को ले कर दिल्ली आ गया, बेटेबहुओं ने बहुत विनती की कि मां मत जाओ, पर मैं उन्हें यह कह कर ले आया कि मेरा अपना घर भी उन का अपना ही घर है.
भाभी को दिल्ली आए हुए 15 दिन बीत गए. मैं सूक्ष्मता से परख रहा था उन के चेहरे को. मैं ने महसूस किया कि उन के चेहरे की उत्फुल्लता का ग्राफ दिनप्रतिदिन गिरता जा रहा है और उदासी का ग्राफ बढ़ता जा रहा है.
मैं ने बेला से पूछा, ‘‘लगता है भाभी की मुखकांति कुछ फीकी सी पड़ने लगी है. क्या तुम भी ऐसा ही सोचती हो?’’
‘‘हां, लगता तो मुझे भी ऐसा ही है.’’
‘‘आखिर क्यों?’’
‘‘कह नहीं सकती गौरव. पर मैं सतर्क हूं कि कोई भी ऐसा काम न करूं, जो उन्हें बुरा लगे. कई बार उन के सामने मेरे मुंह से ‘गौरव’ निकलते निकलते बचा है. मैं जो कुछ भी करती हूं, पहले सोच लेती हूं कि उन्हें बुरा तो नहीं लगेगा. उन के उठने से पहले सो कर उठ जाती हूं, उन के उठते ही उन के पास जा कर उन के चरणस्पर्श करती हूं, उन के पास बैठ कर पूछती हूं, ‘‘भाभी, नींद ठीक से आई?’’
‘‘हां, बहू, बहुत अच्छी आई.’’
‘‘चाय ले आऊं भाभी?’’
‘‘अभी ठहर जा जरा फ्रैश हो लूं.’’
‘‘रात को जब वे कई बार कहती हैं कि अरी उठ, जा देख गौरव तेरे इंतजार में जाग रहा होगा, जा अब छोड़ मुझे, कब तक मेरे पैर दबाती रहेगी.’’
तब कहीं रात में उन के पास से आती हूं. आज सुबह थोड़ी देर उन के पलंग पर बैठी ही थी तो बोलीं, ‘‘अरी उठ, यहां बैठी रहेगी क्या? जा उठ कर गौरव को चाय दे, उठा उसे, सूरज चढ़ आया है, कब तक सोता रहेगा आलसियों की तरह?’’