भाभी कुछ रोष दिखाते हुए बोलीं, ‘‘हांहां, दोनों बुढि़या हो गईं... जुम्माजुम्मा 8 दिन तो नए जीवन में प्रवेश किए हुए नहीं कि अभी से अपने को बुढि़या समझने लगीं. अरी, यही तो उम्र है पहननेओढ़ने की, उछलनेकूदने की, जब बच्चे हो जाएंगे, तो क्या सुध रहेगी अपनी? चलो मैं कहती हूं, खरीदो.’’
दोनों बहुएं मन ही मन मुसकरा रही थीं. बड़की बोली, ‘‘मम्मीजी, आप कह रही हैं, तो खरीद तो हम लेंगी, पर आप ने पहले ही हमें जेवर, कपड़ेलत्तों से लादा हुआ है कि अब जरूरत ही महसूस नहीं होती, क्या करना है?’’
छुटकी ने भी हां में हां मिलाई.
भाभी ने कहा, ‘‘अरी सुना नहीं, बहस किए जा रही हो, जब कह दिया कि खरीदो, तो बस खरीदो, नो कमैंट.’’
दोनों बहुओं ने जी भर कर डिजाइनर साडि़यां खरीदीं. हर साड़ी पर यह कहना नहीं भूलती थीं, ‘‘मम्मीजी, यह कैसी है?’’
‘‘हांहां, अच्छी है,’’ की मुहर लगवाती जाती थीं.
बड़की बोली, ‘‘बस मम्मीजी, बहुत हो गईं, अब रहने दीजिए.’’
‘‘अरी, अभी मेरी पसंद की तो खरीदी ही नहीं,’’ कह कर मम्मी ने दोनों के लिए अपनी पसंद की कुछ साडि़यां, लहंगे आदि और खरीदे. दोनों बहुओं के मन में लड्डू फूट रहे थे. दोनों सासूमां के साथ खुशीखुशी घर लौट आईं.
शाम को सौमित्र और राघव लौटे. आते ही बिना कपड़े चेंज किए, मां से चिपट कर बैठ गए.
‘‘अरे, उठो भी यहां से. कब तक मेरा दिमाग चाटते रहोगे? जाओ, अपनेअपने कमरे में और कपड़े चेंज करो,’’ और फिर जोर से बोलीं, ‘‘अरी बड़की, छुटकी, मैं देख रही हूं कि तुम दोनों के रंगढंग बिगड़ते जा रहे हैं.’’