अपनी बात को पानी देती हुई वे बोलीं, ‘‘क्या मैं इतनी नासमझ हूं कि यह भी नहीं जानती कि दो दूनी चार होते हैं, पांच नहीं? मुझे क्या एकदम बेवकूफ समझ रखा है? तू यह बता कि जब बहू के चेहरे पर सास यह लिखा पढ़ ले कि इस बुढि़या ने तो हमारा जीना हराम कर दिया, हमारी सारी प्राइवेसी पर बंदूक ताने सिपाही की तरह पहरा देती रहती है, तो कौन बरदाश्त करेगा? इस का अर्थ क्या है? बता कोई दूसरा अर्थ हो सकता है इस का? इसे अपराध न मानूं? क्या यह मेरा अपमान नहीं? दब्बुओं की तरह इस कान से सुन कर उस कान से निकालती रहूं? क्या मैं उन के पतियों का दिया खाती हूं? क्या लाई थीं वे अपनेअपने घर से? हम ने दहेज के नाम पर ‘छदाम’ भी न लिया?
‘‘कौन सा ऐसा शौक है इन का जो मैं ने पूरा नहीं किया? अरे, हमारी सुहागरात तो घर में ही मनी थी, पर मैं ने एक को ऊटी भेजा तो दूसरी को गोवा. कौन सी कमी छोड़ी है मैं ने इन के अरमानों को पूरा करने में? आते ही बेटों को अपने काबू में कर लिया.’’
मैं ने भाभी के प्रश्नों की बौछारों पर एकदम ढाल सी तानते हुए कहा, ‘‘छोड़ो भी भाभी, यह सब मुझे क्या बता रही हो, मैं नहीं जानता? नयानया जोश है, बच्चे ही तो हैं सब, इन्हें दीनदुनिया की क्या खबर?’’
‘‘अरे, सुगृहिणियों के कुछ तौरतरीके होते हैं कि नहीं? सुबह 8 बजे तक सोते रहो, नौकर चाय ले कर पहुंचे... महारानियां बिस्तर पर ही चाय पीती हैं. सुबह उठ कर किसी को नमस्कार, प्रणाम, नहीं... उठते ही टूट पड़ो चाय के प्याले पर... अपने मजनुओं के साथ मेरे सामने मटकमटक कर निर्लज्जों की तरह बातें करती हैं, बेटों पर ऐसा हक जमाती हैं जैसे अपने बाप के यहां से लाई हुई कोई जायदाद हो, हुक्म चलाती हैं, नाम ले कर पुकारती हैं. अरे सौमित्र सुनो तो... अरे राघव तुम ने यह काम नहीं किया, कितनी बार कहना पड़ेगा यार, तुम समझते क्यों नहीं? पति को यार कहती हैं, काम पूरा क्यों नहीं किया, इस का स्पष्टीकरण मांगती हैं... यह तमीज है पति से बात करने की? अब तू कहेगा गौरव कि भाभी पति को पति मानने का जमाना गया. अरे, पति को पति न माने तो क्या बाप माने, भाई माने या बेटा? क्या माने?’’